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"vet ni, vi kommer sluta med den här servicen. om du är en privatperson, kommer du inte kunna använda vår maskin längre. om du vill ha en sockerutskrift till din födelsedagstårta, måste du använda en av våra mallar - gjorda av proffs."
"ऐसा है, हम ये काम ही बंद कर रहे हैं। अगर आप शौकिया कलाकार हैं, तो आप हमारी मशीन का इस्तेमाल नही कर सकते। अगर आपको अपने बर्थ-डे केक पर छपाई चाहिये, तो आपको हमारे पास पहले से उपलब्ध चित्रों में से एक लेना होगा -- केवल पेशेवर कलाकारों द्वारा बनाये गये चित्रों से।" तो कांग्रेस में इस वक्त दो विधेयक पेश हो चुके हैं। एक है सोपा (sopa) और दूसरा है पिपा (pipa)। सोपा (sopa) का अर्थ है स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट। ये सेनेट से आया है। पिपा (pipa) लघु रूप है protectip का जो कि स्वयं लघुरूप है प्रिवेंटिंग रियल ऑनलाइन थ्रेट्स टू इकॉनामिक क्रिएटिविटी एन्ड थेफ़्ट ऑफ़ इन्टेलेक्चुअल प्रोपर्टी -- इन चीज़ों को नाम देने वाले कांग्रेस के नुमाइंदों के पास बहुत ढेर सारा फ़ालतू समय होता है। और सोपा और पिपा नाम की बलायें आख़िरकार करना ये चाहती हैं। वो इतना महँगा बना देना चाहती हैं कॉपी-राइट के दायरे में रह कर काम करने को, कि लोग उन काम-धंधों को छोड ही दें जिनमें शौकिया रचना करने वाले शामिल होते हैं। अब, ऐसा करने के लिये उनका सुझाव ये है कि उन वेबसाइटों को पहचान लिया जाये जो कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं -- हालांकि ये साइट कैसे कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं, विधेयक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठा है -- और फ़िर वो इन साइटों को डोमेन नेम सिस्टम से बर्खास्त कर देना चाहते हैं। वो इन्हें डोमेन नेम सिस्टम से निष्काशित कर देना चाहते हैं। देखिये ये डोमेन नेम सिस्टम ही है जो कि इंसानों को समझ आने वाले नामों को, जैसे कि गूगल डॉट कॉम, उन नामों में बदलता है जिन्हें कम्प्यूटर समझता है -- जैसे कि ७४.१२५.२२६.२१२ असल ख़राबी इस सेंसरशिप के मॉडल में, जो कि इन साइटों को ढूँढेगा, फ़िर उन्हें डोमेन नेम सिस्टम से हटाने की कोशिश करेगा, ये है कि ये काम नहीं करेगा। और आपको लग रहा होगा कि ये कानून के लिये ख़ासी बडी दिक्कत होगी मगर कांग्रेस इस बात से ज़रा भी परेशान नही लगती है। ये सिस्टम धवस्त इसलिये हो जायेगा क्योंकि आप अब भी अपने ब्राउज़र में ७४.१२५.२२६.२१२ टाइप कर के या उसका क्लिक-करने लायक लिंक बना कर अब भी गूगल तक पहुँच पायेंगे। तो जो सुरक्षात्मक घेरा इस समस्या के आसपास खडा किया गया है, वही इस एक्ट का सबसे बडा खतरा है। कैसे कांग्रेस ने ऐसा विधेयक लिख डाला जो कि अपने मुकरर्र लक्ष्यों को कभी पूरा नहीं करेगा, मगर एक हज़ार नुकसानदायक साइड-एफ़ेक्ट बना डालेगा, ये समझने के लिये आपको कहानी में गहरे पैठना होगा। और कहानी कुछ ऐसी है: सोपा और पिपा, ऐसे विधेयक हैं जिनका ड्राफ़्ट मुख्यतः उन मीडिया कंपनियों ने लिखा जो कि बीसवीं सदी में शुरु हुई थीं। बीसवीं सदी मीडिया कंपनियों के लिये स्वर्णिम समय था क्योंकि मीडिया कंटेट की बहुत ही ज्यादा कमी थी। अगर आप कोई टी.वी. शो बना रहे हैं, तो उसे बाकी सारे टी.वी शो से बेहतर नहीं होना होगा; उसे केवल बेहतर होना होगा बाकी दो शो से, जो उसी समय प्रसारित होते हों -- जो कि बहुत ही हल्की शर्त है स्पर्धा के लिहाज से। जिसका मतलब है कि यदि आप बिलकुल औसत कंटेंट भी बना रहे हैं, तो फ़्री में अमरीका की एक-तिहाई पब्लिक आपकी बात सुनने को मजबूर है - कई लाख लोग एक साथ आपको सुन रहे हैं तब भी जब कि आपका बनाया कुछ ख़ास नहीं है। ये ऐसा है जैसे आपको नोट छापने का लाइसेंस मिल जाये, और साथ ही फ़्री इंक भी। मगर टेक्नालाजी आगे बढ गयी, जैसा कि वो हमेशा करती है। और धीरे धीरे, बीसवीं शताब्दी के अंत तक, कंटेट की वो कमी खत्म सी होने लगी -- और मेरा मतलब डिजिटल टेक्नालाजी से नहीं है, साधारण एनालाग टेक्नालाजी भी ज़रिया बनी। कैसेट टेप, विडियो कैसेट रेकार्डर, यहाँ तक कि ज़ेराक्स मशीन भी नये अवसर पैदा करने लगी ऐसे क्रियाकलापों के लिये, जिन्होनें इन मीडिया कंपनियों की हवा निकाल दी। क्योंकि अचानक इन्हें पता लगा कि कि हम लोग सिर्फ़ चुपचाप बैठ कर देखने वाले लोग नहीं हैं। हम सिर्फ़ कनस्यूम करना ही नहीं चाहते। हमें कन्स्यूम करने में मज़ा आता है, मगर जब भी ऐसे नये अविष्कार हम तक पहुँचे, हमने कुछ रचने की भी कोशिश की और अपनी रचना को शेयर करने, बाँटने का प्रयास किया। और इस बात ने मीडिया कंपनियों को घबराहट में डाल दिया -- हर बार उनकी हालत पतली ही हुई। जैक वलेन्टी ने, जो कि मुख्य प्रचारक थे मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका के, एक बार घृणा योग्य विडियो कैसेट रिकार्डर की तुलना जैक द रिपर से की थी और गरीब, ह्ताश, बेचारे हॉलीवुड की उस कमज़ोर औरत से जो घर पर अकेले शिकार होने को बैठी है। इस स्तर पर चीख-पुकार मचायी गयी थी। और इसलिये मीडिया इंडस्ट्री ने गिडगिडा कर, ज़ोर डाल कर, ये माँग रखी कि काँग्रेस कुछ करे। और काँग्रेस ने किया भी। ९० के दशक के पूर्वार्ध तक, काँग्रेस ने ऐसा कानून बनाया जिसने सब कुछ बदल दिया। और उस कानून का नाम था 'द ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट' सन १९९२ का। १९९२ का द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट ये कहता है कि, देखिये, अगर लोग रेडियो प्रसारण को रिकार्ड कर रहे हैं, और फ़िर दोस्तों के लिये खिचडी-कैसेट बना रहे हैं, तो ये अपराध नहीं है। इसमें कोई गलत बात नहीं है। टेप करना, रीमिक्स करना, और दोस्तों में बाँटना गलत नहीं है। यदि आप कई सारी उम्दा क्वालिटी की कॉपी बना कर बेच रहे हैं, तो ये बिल्कुल भी सही नहीं है। मगर ये छोटा मोटा टेप करना वगैरह ठीक है, इसे चलने दो। और उन्हें लगा कि उन्होनें मसले को हल कर दिया है, क्योंकि उन्होंने साफ़ लकीर बना दी थी कानूनन गलत और कानूनन सही कॉपी करने के बीच। मगर मीडिया कंपनियों को ये नहीं चाहिये था। वो ये चाहते थे कि काँग्रेस किसी भी तरह की कॉपी करने पर पूर्ण रोक लगा दे। तो जब १९९२ का ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट पास हुआ, मीडया कंपनियों ने ये विचार ही छोड दिया कि कॉपी करना किसी स्थिति में कानूनन सही माना जा सकता है क्योंकि ये साफ़ था कि यदि काँग्रेस इस नज़रिये से सोचेगी तो शायद नागरिकों को और भी अधिकार मिले अपने मीडिया परिवेश में रचनात्मक भागीदारी करने के। तो उन्होनें दूसरी ही योजना बनाई। उन्हें इस योजना को बनाने में थोडा समय ज़रूर लगा। ये योजना पूर्ण रूप से सामने आयी सन १९९८ में -- डिजिटल मिलेनियम कॉपीराइट एक्ट के रूप में। (डी.एम.सी.ए.) ये अत्यधिक जटिल कानून था, हजारों हिस्सों में बँटा हुआ। मगर डी.एम.सी.ए का मुख्यतः ज़ोर ये था कि ये कानूनन सही है कि आपको बेचा जाय ऐसा डिजिटल कंटेट जिसे कॉपी नहीं किया जा सकता -- बस इतनी सी गल्ती हुई कि ऐसा कोई डिजिटल कंटेट नहीं हो सकता जो कॉपी न हो सके। ये ऐसा था जैसा कि एड फ़ेल्टन ने कहा था,