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"अरे सुनिये, मैं आपको एक उपदेश देना चाहता हूं?" वो कहेंगे, " नहीं नहीं, मुझे उपदेश-वुपदेश नही चाहिये. मैं एक स्वतन्त्र व्यक्ति-विशेष हूं." एक उपदेश और व्याख्यान, जो कि हमारा आधुनिक धर्मनिरपेक्ष तरीका है मे क्या अन्तर है? एक उपदेश आपका जीवन बदलना चाहता है और एक व्याख्यान आपको बस थोडी जानकारी देना चाहता है. और मुझे लगता है कि हमें उपदेश की प्रथा को वापस लाना चाहिये. उपदेश की प्रथा अत्यधिक मूल्यवान है, क्यों कि हमें मार्गदर्शन, नैतिकता और सांत्वना की सख्त जरूरत है -- और धर्म ये बात जानते हैं. शिक्षा के बारे मे एक और बात: इस आधुनिक लौकिक दुनिया मे हमें ऐसा लगता है कि यदि हम एक बात किसी को एक बार बतायेंगे तो वो उसे याद रखेगा. कक्षा मे बिठा के, बीस साल की आयु मे उन्हें, आप प्लूटो के बारे मे बताइये, फ़िर 40 साल की आयु मे उन्हें प्रबंधन सलाहकर बनने भेज दीजिये और तब भी वो पाठ उन्हें याद रहेगा. धर्म कहते हैं, "बकवास. तुम्हे दिन मे 10 बार अपने पाठ को दोहराने की जरूरत है. तो अपने घुटनों पे बैठो और अपना पाठ दोहराओ." सारे धर्म हमें यही करने को कहते हैं: तो झुको और रोज़ 10, या 20 या 15 बार अपना पाठ दोहराओ." नही तो हमारे छ्लनी जैसे दिमाग से सब निकल जायेगा. तो धर्म मे पुनरावृत्ति का चलन है. वो वही महासत्य बार बार घुमा फ़िरा के कहते रहते हैं. पर पुनरावृत्ति से हमें बोरियत होती है. हमे हमेशा कुछ नया चाहिये. नया हमेशा पुराने से अच्छा है. अगर मै आपसे कहूं," ठीक है भाई, आज से नया ted नही होगा. हम बस वही पुराने ted talk बार बार दोहरायेंगे और और उसे पांच बार देखेंगे क्यूंकि कि वो सब कितने सच्चे हैं. हम एलिज़ाबेथ गिल्बर्ट को पांच बार देखेंगे क्योंकि वो जो कहतीं हैं वो बहुत अच्छा है," आप छला हुआ महसूस करेंगे. लेकिन अगर आप धार्मिक विचारधारा अपनायेंगे तो ऐसा नही होगा. धर्म एक और काम करता है, और वो है समय व्यवस्था. सभी बडे धर्मों ने हमे केलेन्डर दिये है. केलेन्डर क्या है? केलेन्डर यह निश्चित करने का एक तरीका है कि आपको पूरे साल के दौरान कुछ महत्वपूर्ण विचारों का ध्यान रखें. केथोलिक केलेन्डर मे, हर मार्च के अन्त मे आप सन्त जेरोमी के बारे मे सोचेंगे और उनके सद्गुणों, सदाचरण और गरीबों के प्रति दयाभाव के बारे मे सोचेंगे. और ये कोइ इत्तेफ़ाक से नहीं होगा, बल्कि इसलिये होगा क्यों कि आपको ऐसा करने को कहा गया है. पर अब हम ऐसा नही सोचते. धर्मनिरपेक्ष संसार मे हम मानते हैं, "अगर कोई बात जरूरी है तो हम उस पर अमल करेंगे. हम इसे खुद ही समझने की कोशिश करेंगे." लेकिन धार्मिक लोग इसे बकवास मानेंगे. धार्मिक मत के हिसाब से हमें कलेन्डर चाहिये, समयबद्धता चाहिये, और इसी के हिसाब से हम किसी बात पर विचार करेंगे. और ये तब भी दिखता है जब धर्म मे रीति रिवाजों को खास भावनाओं से जोडा जाता है. अब चन्द्रमा को ही ले लीजिये. इसे देख्नना महत्वपूर्ण है. और आप जानते हैं कि जब आप चांद देखते है, तो सोचते है, "मै कितना तुच्छ हूं, मेरी समस्यायें क्या है?" इससे चीजों का एक नजरिया बनता है. हमें चांद को कई बार देखना चाहिये, पर हम नही देखते. क्यों नहीं? क्यों कि हमसे कोई ये कहने वाला ही नही है,"चांद को देखो". लेकिन अगर आप एक जेन बुद्ध है तो सितम्बर के बीच मे आपको एक खास मंच पे खडे होना पडेगा, और आप सुकिमी का त्योहार मनायेंगे, जिसमे आपको चांद के सम्मान और समय के चक्र और जीवन की भंगुरता के बारे मे याद दिलाने के लिये कवितायें पढने को दी जायेगी. फ़िर आपको चावल का केक दिया जायेगा. और चांद और उसका प्रतिबिम्ब आपके दिल मे हमेशा के लिये बस जायेगा. ये वाकई बहुत अच्छी बात है. दुसरी बात जो धर्म अच्छी तरह समझते हैं वो है : अच्छी वाणी -- जो मै यहां बहुत अच्छा नही कर पा रहा हूं -- वाक्पटुता तो वाकई धर्म का मूल है. इस भौतिकतावादी दुनिया मे, आप विश्वविद्यालय पद्धति मे पढ के, अच्छे वक्ता न होने के बावजूद एक अच्छा जीवन बना सकते हैं. लेकिन धार्मिक दुनिया ऐसा नही सोचती आप जो भी कहें उसे अच्छे विश्वसनीय तरीके से कहना बहुत जरूरी है तो यदि आप दक्षिण अमेरिका के किसी अफ़्रीकी अमेरिकी पेन्टेकोस्टल चर्च मे जायेंगे और उनकी बातें सुनेगे तो जान जायेगें कि वे वाकई बहुत ही अच्छे से बात करते हैं. हर निश्चयात्मक बात के बाद सब "आमीन आमीन आमीन" कहते हैं. और हर उत्साहपूर्ण बात के बाद सब खडे होके कहेंगे. "शुक्रिया जीजस, शुक्रिया क्राइस्ट, शुक्रिया तारणहार". अगर हम भी ऐसे ही करें जैसे वो करते हैं -- हम ऐसा करते नही हैं पर बस सोचिये अगर हम ऐसे करें -- मैं आपसे ऐसा कुछ कहूं जैसे "ग्रन्थों को संस्कृति से प्रतिस्थापित कर देना चाहिये". और आप सब कहें, "आमीन, आमीन, आमीन." और मेरी बात के अन्त मे सब खडे होकर कहें "शुक्रिया प्लूटो, शुक्रिया शेक्सपीयर, शुक्रिया जेन औस्टिन." और हमे लगे कि हम वाकई सुर मे सुर मिला रहे हैं. तो कैसा लगेगा!
"hey, wie wär's mit einer predigt?", dann sagt der: "nein, nein, die brauch ich nicht. ich bin ein unabhängiges individuum."