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mercutio चेचक के ऐसे विलक्षण lisping, fantasticoes प्रभावित, इन नए लहजे की tuners!
mercutio la vérole de tels antic, zézaiement, affectant fantasticoes; ces nouveaux tuners d'accents - "en jésus, une lame très bonne - un homme très grand - une pute très bon!" - pourquoi, n'est-ce pas une chose déplorable,
बात साफ़ है कि हम कठिनाई के दौर में हैं । ये कहा जा सकता है कि वित्त-बाजार असफ़ल रहे हैं और अनुदान-पद्धति ने भी असफ़लता ही दी है। और इसके बावज़ूद, मै दृढता से आशावादियों के साथ खडी हूँ जो ये मानते है कि जीवित होने का आज से बेहतर समय कभी था ही नहीं । कुछ नयी तकनीकों के कारण कुछ नये साधनों के कारण, नये हुनरों के कारण, और ज़ाहिर है कि पूरी दुनिया में दिखती नई प्रतिभा के कारण, जो बदलाव लाने के लिये मानसिक रूप से प्रतिबद्ध हैं। और हमारे राष्ट्रपति भी 'वसुधैव कुटुंबकम' में विश्वास रखते हैं, और ये मानते है कि अब कोई एक देश महाशक्ति नहीं बन सकता है, बल्कि हमें अपनी दुनिया को नये नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। और पारिभाषिक रूप से, इस कमरे में बैठे हर शख्श को खुद को विश्व-आत्मा ही मानना चाहिये, वैश्विक-नागरिक। आप सामने से नेतृत्व करने वाले लोग हैं। और आपने बढिया से बढिया और बुरे से बुरा कृत्य देखा है जो मानवों ने दूसरों के लिये, और दूसरों के साथ किया है। और चाहे आप किसी भी देश में रहते या काम करते हों, आप गवाह होंगे मानवो द्वारा किये गये इन असाधारण कृत्यों के, साधारण आम इंसानों द्वारा किये गये कृत्यों के। आजकल एक ज़ोरदार बहस चल रही है कि कैसे लोगों को गरीबी से निज़ात दिलाया जाये, कैसे उन में दबी आत्म-शक्ति को प्रवाहित किया जाये। एक तरफ़ ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि अनुदान-प्रणाली इतनी टूट चुकी है कि उसे उखाड फ़ेंकना चाहिये. दूसरी तरक वो हैं जो कहते हैं कि समस्या ये है कि भरपूर अनुदान कभी दिया ही नहीं गया। और मैं ऐसी चीज़ के बारे में बात करना चाहती हूँ जो बाज़ार और अनुदान दोनो है। इसे हम धैर्यवान पूँजी कहते हैं। आलोचक उँगली उठाते हैं कि ५०० बिलियन डॉलर (बीस हज़ार करोड रुपये) खर्च हो चुके हैं अफ़्रीका पर १९७० से अब तक और पूछते हैं कि हमने क्या पाया सिवाय पर्यावरण के ह्रास के, और अमानवीय स्तर की गरीबी और महामारी जैसे भ्रष्टाचार के? वो मोबोटू का उदाहरण देते हैं। और से नीती बनाने की बात कहते हैं जिससे कि सरकार को जवाबदेह बनाया जाये, पूँजी बाजारों को केंद्र में रख जाये, और दान के बजाय निवेश किया जाये। दूसरी तरफ़, जैसा कि मैनें कहा, वो हैं जो कहते हैं कि समस्या है कि हमें और पैसा अनुदान में चाहिये। कि रईसों को बचाने के लिये हम राहत-अनुदान देने को तैयार हैं अर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं। पर जब बात गरीबों पर आती है, वो हम अपना पल्लू झाड लेते हैं। वो अनुदान की सफ़लता के ओर इशारा करते हैं: बडी चेचक (स्मालपोक्स) के खात्मे की ओर, और कई करोड मच्छरदानियों के वितरण की ओर। दोनों ही सही हैं। और समस्या ये है कि दोनो ही पक्ष दूसरे की बात सुनने को राज़ी नहीं हैं। और इससे भी बडी समस्या ये कि वो उन्हें सुनने को भी तैयार नहीं जिन गरीबों के लिये वो काम करना चाहते हैं। २५ साल तक काम करने के बाद गरीबी और नवपरिवर्तन के मसलों से जुडे रहने पर, मुझे लगता है कि बाज़ार से जुडे लोगों की संखया इस धरती पर उतनी ही है जितनी कि गरीबों की। गरीबों को भी रोज़ बाज़ारों से रूबरू होना पडता है, छोटे छोटे दर्ज़नों फ़ैसले लेने होते हैं, समाज में अपनी राह बनाते के लिये। और इतनी कडी मेहनत के बावजूद भी सिर्फ़ एक छोटी स्वास्थय समस्या जो उनके परिवार को झेलनी पड जाये, उन्हें वापस गरीबी में धकेल सकती है, कई बार तो कई पीढियों के लिये। और इसलिये हमें बाज़ारों की उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि अनुदानों की। धैर्यवान पूँजी इन दोनों के बीच अपने लिये एक ख़ास जगह बनाती है, और दोनो की बेहतर बातों को स्वयं में समाहित करती है। ये पूँजी वो धन है जिसे उन उद्यमियों को सौंपा गया है जिन्हें अपने समाज की पहचान है और जो हल निकाल रहे हैं समस्याओं का जैसे कि स्वास्थ सेवाएँ, जल-आपूर्ति, आवास, वैकल्पिक ऊर्जा का, गरीबों को सिर्फ़ दया का प्राप्त मानते हुये नहीं, बल्कि उन्हें ग्राहक, मुवक्किल, और उप्भोक्ता का दर्ज़ा देते हुए, गरीबो को अपने जीवन के फ़ैसले लेने की गरिमा देते हुए। धैर्यवान पूँजी का निवेश चाहता है कि हम में जोखिम उठाने की अविश्वसनीय काबलियत हो, और असाधारण दूरदर्शिता हो जो हमें इन उद्यमियों को समय देने दे, कि वो बाजार में प्रयोग कर के सीख सकें, और ये स्वीकार करें कि हमें बाज़ार-भाव से कम मुनाफ़ा होगा, मगर हम बेहतरीन सामाजिक असर डाल पाएँगे। धैर्यवान पूँजी निवेश ये मान कर ही किया जायेगा कि बाज़ार की अपनी मियादें हैं। और इसलिये धैर्यवान पूँजी कुछ हद तक अनुदान का भी प्रयोग करती है जिस से कि वैश्विक अर्थव्यवसथा के फ़ायदे सब लोगों तक पहुँचें। देखिये, उद्यमियों को धैर्यवान पूँजी की आवश्यकता तीन कारणों से होती है। पहला ये कि वो ऐसी बाज़ारों में हैं जहाँ लोगों की दैनिक कमाई एक से तीन डॉलरों के बीच है और उन्हें अपने सारे फ़ैसले उसी कमाई के स्तर पर लेने होते हैं। दूसरा ये कि जिन जगहों पर वो काम करते हैं वहाँ बुनियादी सुविधाएँ भी खस्ताहाल हैं। सडकें गायब ही हैं, बिजली कभी आई, कभी नहीं, और जबरदस्त भ्रष्टाचार है। तीसरा ये कि अक्सर वो लोग पूर्णतः नयी बाज़ार बना रहे होते हैं। यदि आप साफ़ पानी भी पहली बार किसी गाँव में ले जा रहे हैं, वो बिलकुल नयी चीज़ है। और बहुत सारे गरीब लोगों ने बहुत सारे झूठे वादे सुने और झेले हैं, और तमाम ठगों और नकली दवाओं से उनका पाला पड चुका है, कि उनका विश्वास ग्रहण करने में बहुत वक्त लगता है, और धैर्य भी आजमाइश भी होती है। उन्हें ढेरों मदद चाहिये होती है प्रबंधन में भी, न सिर्फ़ नयी प्रणाली बिठाने के लिये, और ऐसे व्यावसायिक ढाँचों को बनाने के लिये जो कि गरीबों तक चिरस्थायी रूप से पहुँचे, पर इन व्यवसायों की पहुँच को दूसरे बाज़ारों तक, सरकारों तक, और बडे निगमों तक विकसित करने में-- सच्ची साझेदारियाँ जो कि काम के पैमाने को विशालता दें। मैं आपसे एक कहानी बाँटना चाहती हूँ ड्रिप-सिंचाई नाम की एक नवीन तकनीक की कहानी। सन २००२ में मेरी मुलाकात एक महान उद्यमी से हुई भारत के अमिताभ सडाँगी, जो लगभग २० सालों से धरती के शायद सबसे गरीब किसानों के साथ काम कर रहे हैं। और उन्होंने अपनी निराशा ज़ाहिर की कि अनुदान व्यवस्था ने इन गरीब किसानों बिलकुल ही अनदेखा कर दिया था, जबकि ये सत्य है कि करीब २० करोड किसान केवल भारत में ही प्रतिदिन एक डॉलर से नीचे कमाते हैं। और अनुदान या आर्थिक मदद या तो बडे खेतों को मिल रही थी, या फ़िर छोटे किसानों को सिर्फ़ सलाह मिल रही थी वो भी वो जो देने वाली ठीक समझते थे, और किसान उन्हें लागू नहीं करना चाहते थे। उसी समय अमिताभ भी ड्रिप-सिंचाई की तकनीक में आकंठ डूबे हुये थे जिसका ईज़ाद इज़राइल में हुआ था। ये पानी की थोडी थोडी मात्रा को सीधे पौधे तक पहुँचाने की तकनीक है। और इस तकनीक ने रेगिस्तानों तक को हरे भरे खेतों में तब्दील कर डाला था। और साथ ही बाज़ार-व्यवस्था ने भी गरीब किसानों को अनदेखा कर दिया था। क्योंकि ये तकनीक बहुत महँगी थी, और केवल बडे खेतों में इस्तेमाल के लिये ही बनायी गयी थी। आम छोटे गाँव का किसान ज्यादा से ज्यादा एक या दो एकड खेत में काम करता है। और इसलिये अमिताभ ने फ़ैसला किया कि वो इस तकनीक को दुबारा विकसित करेंगे उसे गरीब किसानों के लिये उपयोगी बनाने के लिये। क्योंकि उन्होंने किसानों को समझते हुए कई साल बिताये थे, न कि अपनी सोच उन पर थोपते हुए। तो उन्होनें तीन मौलिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया। पहला था लघुकरण, चीज़ को छोटा बनाना। ड्रिप-सिंचाई व्यवसथा को इतना छोटा होना होगा कि एक किसान को केवल चौथाई एकड ज़मीन में ही जोखिम उठाना पडे, चाहे उसके पास दो एकड खेत ही क्यों न हो, क्योंकि असफ़लता का मतलब किसान के लिये भयंकर होता है। दूसरा, उसे बहुत ही सस्ता होना होगा। दूसरे शब्दों मे, चौथाई एकड पर उठाया गया जोखिम एक बार की फ़सल से ही चुकाया जा सके। नहीं तो किसान तकनीक के इस्तेमाल का जोखिम उठाएँगे ही नहीं। और तीसरा, जिसे अमिताभ कहते है बेहद विस्तार के काबिल हो। मेरा मतलब है कि पहले चौथाई एकड के मुनाफ़े से किसान दूसरे के लिये खरीद सकें, और फ़िर तीसरे, और फ़िर चौथे के लिये। आज, अमिताभ की संस्था, आई.डी.ई., ३०० से ज्यादा किसानों को ये तकनीक बेच चुकी है और उनकी पैदावार और कमाई को औसतन दोगुना या तिगुना कर चुकी है। पर ये अचानक हुआ चमत्कार नहीं है। जब आप शुरुवात पर नज़र डालेंगे, तो पायेंगे कि निजी निवेशक इस नयी तकनीक को बनाने में जोखिम नहीं ले रहे थे वो भी ऐसी बाज़ार के लिये जहाँ लोग प्रतिदिन एक डॉलर से कम कमाते थे, और जोखिम नहीं उठाने के लिये जाने जाते थे, और जो दुनिया के सबसे जोखिम भरे कामों में से एक था, खेतीबाडी। तो हमने अनुदान दिया। और उन्होने इन अनुदानों का इस्तेमाल शोध, प्रयोग करने, असफ़ल होने, और फ़िर से कोशिश करने में किय। और जब हमारे पास एक नमूना तैयार हो गया और बाज़ार और किसानों के रिश्ते की समझ भी बढ गयी, तब हम धैर्यवान पूँजी तक पहुँचे। और हमने उनकी मदद की, एक कंपनी बनाने में, मुनाफ़े के लिये काम करने वाली, जो कि आई.डी.ई. के ज्ञान को आगे ले जाएगी और निर्यात एवं बिक्री पर केंद्रित होगी, और दूसरी प्रकार के निवेशकों को आकर्षित कर सकेगी। वहीं, हम ये भी देखना चाहते थे कि क्या हम इस तकनीक को दूसरे देशों को निर्यात कर सकते हैं। तो हम डॉ. सोनो ख़ानघरानी से पाकिस्तान में मिले। और देखिये, हालांकि बहुत धैर्य चाहिये होता है भारत में बनी तकनीक को पाकिस्तान ले जाने में, केवल परमिट लेने में ही, फ़िर भी, हम ए
il est évident que nous vivons des temps de crise. on peut soutenir que les marchés financiers ont échoué et que le système de l'aide internationale est en train d"échouer. et pourtant je suis fermement avec les optimistes qui croient qu'il n'y a probablement jamais eu de moment plus excitant pour vivre.