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तो मैं आपको बस अपनी कहानी सुनाने आयी हूँ। मेरा काफ़ी समय जाता है व्यस्कों को ये सिखाने में कि कैसे वो चिन्हों की भाषा और उल्टी-सीधी चित्रकारी का ऑफ़िसों में प्रयोग करें। और ज़ाहिर है, मुझे बहुत विरोध झेलना पडता है, क्योंकि इसे गैर-बुद्धिजीवी और बेवकूफ़ाना माना जाता है और गंभीर-शिक्षा का दुश्मन भी। मगर मैं इस मान्यता के ख़िलाफ़ हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि उल्टी-सीधी चित्रकारी का गहरा रिश्ता है हमारे जानकारी को समझने के तरीकों से और हमारे समस्या के समाधान ढूँढने के तरीकों से। तो मुझे बडी जिज्ञासा थी कि क्यों ये विरोधाभास है समाज के इस तरह की चित्रकारी के प्रति रवैये और इस तरह की चित्रकारी के असली महत्व में। लिहाज़ा, मुझे कई सारी मज़ेदार बातें पता चलीं। मिसाल के लिये, डूडल (चील-बिलउये या बेकार की चित्रकारी के लिये आगे यही शब्द उपयोग होगा) को कभी सकारात्मक परिभाषा दी ही नहीं गयी। सत्रहवीं शताब्दी में, डूडल शब्द का अर्थ था कोई बेवकूफ़ या निम्न व्यक्ति -- जैसे कि यैन्की डूडल। अट्ठारहवीं सदी में, ये एक क्रिया के रूप में प्रयोग होने लगा, और उसका मतलब था किसी की खिल्ली उडाना। उन्नीसवीं शताब्दी में इस शब्द का अर्थ था कोई भ्रष्ट राजनीतिज्ञ। और आज के दौर में, शायद जो इस शब्द की सबसे नकारात्मक परिभाषा हो सकती है, कम से कम मेरे लिये, जो कि इस प्रकार है: डूडल करने का अर्थ है समय गँवाना, आलस करना, उच्छंख्ल होना, बेकार के चिन्ह बनाना, और ऐसा काम जिसका कोई उपयोग, महत्व, या आवश्यकता नहीं है, और -- सबसे बढिया अर्थ -- कुछ भी नहीं करना। कोई आश्चर्य नहीं है कि लोग कामकाज के दौरान डूडल करने से कतराते हैं। कुछ भी नहीं करना को ऑफ़िस में बैठ कर हस्तमैथुन करने के समान है; बिलकुल ही गलत, ग़ैर-ज़िम्मेदाराना। (हँसी) साथ ही, मैने कुछ और भयावह कहानियाँ सुनी हैं उन लोगों से जिनके शिक्षकों ने उन्हें कक्षा में डूडल करने के लिये फ़टकारा है। और जिनके ऐसे बॉस लोग हैं जो उन्हें मीटिंग-रूम में डूडल करने के लिये डाँटते हैं। कोई सांस्कृतिक मुहिम ज़ारी हो गयी है डूडलों के खिलाफ़, उन स्थितियों में जहाँ हमसे कुछ सीखने की अपेक्षा की जाती है। और दुर्भाग्यवश, प्रेस भी इसी मान्यता को बढावा देती है जब वो डूडल के बारे में समाचार देती है -- कि कोई वी.आई.पी. किसी ख़ास बहस में -- वो अक्सर ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं जैसे "पाये गये" या "पकडे गये" या "खोज निकाले गये," जैसे कोई संगीन ज़ुर्म करते पकडे गये हों। सोने पे सुहागा, मनोविज्ञानी भी डूडलों से बैर रखते हैं -- फ़्रायड जी, धन्यवाद। १९३० के दशक में, फ़्रायड जी ने हमें सिखा दिया कि आप लोगों की मानसिकता समझ सकते हैं उनकी उल्टी सीधी चित्रकारी को देख कर। ये सटीक नहीं है, मगर टोनी ब्लेयर के साथ ऐसा ही हुआ था २००५ के डेवोस फ़ोरम में, जब उनके डूडल, संगीन ज़ुर्म की तरह, "पकड लिये गये थे" और उन पर ये संज्ञायें थोप दी गयी थीं। और अब पता लगा है कि ये तो बिल गेट्स की चित्रकारी थी। (हँसी) और बिल भाई, अगर आप यहाँ हैं, हम नहीं मानते कि आप दंभ से भरे हैं। लेकिन ये सब बातें लोगों को अपने डूडल सार्वजनिक करने से रोकती हैं। और अब मुद्दे की बात। मेरा दृढ विश्वास क्या है -- मै मानती हूँ कि हमारी संस्कृति शाब्दिक जानकारी से इतनी प्रभावित है कि हम डूडलों के महत्व के प्रति अँधे हो गये हैं। और मुझे ये बात नागवार गुज़रती है। और ऐसा इसलिये कि इस मान्यता का खात्मा ज़रूरी है, मै यहाँ आपके सामने सच प्रस्तुत करने आयी हूँ। और सच ये है कि: डूडल/ चील-बिलउआ/ उल्टी-सीधी चित्रकारी एक शक्तिशाली माध्यम है, और ऐसा माध्यम जिसे याद रखना और फिर-फिर सीखना अनिवार्य है। तो डूडलों की नयी परिभाषा है: और मेरी आशा है ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी से कोई यहाँ हो, क्योंकि मैं आपसे ज़रूर बात करना चाहूँगी। ये है असली परिभाषा: डूडल करना वास्तव में ऐसे सहज चिन्ह बनाना है जो आपको सोचने में मदद करें। इसलिये दसियों लाख लोग ऐसा करते हैं। और डूडल के बारे में एक और रोचक सत्य ये है कि: जो लोग शब्दों में निहित जानकारी देखते समय डूडल करते हैं, वो उसका ज्यादा बडा हिस्सा याद रख पाते हैं, अपने डूडल-हीन साथियों की तुलना में। ऐसा माना जाता है कि डूडल करने वाले का ध्यान भंग हो चुका है, मगर असलियत ये है कि डूडल बनाने से आपका ध्यान बँटने से बचा रहेगा। साथ ही, इस का गहरा असर पडता है समस्याओं के रचनात्मक निदान में और गहरी जानकारी को समझने में। सीखने वाला चार प्रकार से जानकारी को समझता है, जिससे कि वो उस पर आधारित फ़ैसला ले। ये हैं दृष्य, श्रव्य, पढना-लिखना, और गति-सौंदर्य-बोध। देखिये यदि सच में जानकारी को पचाना और उसका कुछ उपयोग करना है, तो हमें कम से कम इन में दो ज़रियों का इस्तेमाल करना होगा, या फ़िर कम से कम एक ज़रिये के साथ एक भावनात्मक अनुभव का । डूडल का अद्वितीय योगदान ये है कि वो चारों की चारों विधाओं का एक साथ इस्तेमाल करवाता है, साथ ही भावनात्मक अनुभव की संभावना भी रखता है। ये बहुत तगडा योगदान है ऐसे व्यवहार का जिसे 'कुछ नहीं करना' माना जाता रहा हो। ये थोडी किताबी कीडे जैसी बात होगी, मगर जब मुझे इसका पता चला तो मेरे आँसू छलक आये। तो कुछ लोगों ने मानवीय शोध किये कि कैसे बच्चों में कलात्मक गतिविधियों का विकास होता है, और उन्हें पता चला, कि अलग अलग जगहों और समयों में, सारे बच्चे दृश्य के प्रति अपने तर्क का एक सा विकास प्रदर्शित करते हैं, जैसे जैसे वो बडे होते हैं। दूसरे शब्दों मे, उनके पास एक साझी और बढती जटिलता होती है दृश्य भाषा की जो कि एक खास क्रम में आती है। और मुझे लगता है कि ये बहुत ही ज़बर्दस्त बात है। मेरा मानना है कि डूडल बनाना हमारा प्राकृतिक व्यवहार है और हम अपनी इस सुलभ चेष्ठा से स्वयं को वंचित कर रहे हैं। और आखिर में, बहुत लोगों को ये नहीं पता होगा, मगर डूडल पहला कदम रहा है हमारी संस्कृति की कुछ महानतम उपलब्धियों का। मैं सिर्फ़ एक ही उदाहरण देती हूँ: ये महान शिल्पकार फ़्रैंक गेरी द्वारा अबु धाबी में बनाये गये गगेनहेम बिल्डिंग का पहला स्केच है। तो मैं यह कहना चाहती हूँ: किसी भी स्थिति में चील-बुलउआ-कारी पर रोक नहीं होनी चाहिये कक्षाओं में, या कि मीटिंग-रूम में, और युद्ध-कक्षों में भी। इसके विपरीत, डूडल की कला का फ़ायदा उठाना चाहिये इन स्थितियों में जहाँ जानकारी प्रचुर मात्रा और घनत्व में होती है, और उसको समझना निहायत ही महत्वपूर्ण। और मैं तो एक कदम और आगे जाऊँगी। क्योंकि डूडल बना पाना सबके लिये इतना आसान है, और ये उस तरह से नर्वस नहीं करता जैसे अन्य स्थापित कला-विधायें, हम इसे ऐसे मंच के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं, जहाँ लोगों को दृष्टि-साक्षरता के ऊँचे आयामों तक पहुँचा जा सके। मेरे मित्रों, डूडल असल में कभी भी बुद्धि, विचार और बुद्धिजीवियों का दुश्मन नहीं रहा है। सच्चाई ये है, कि ये हमारे सबसे घनिष्ठ मित्रों में से एक रहा है। धन्यवाद। (तालियों सहित अभिवादन)
quisiera contarles mi historia. paso mucho tiempo enseñando a los adultos a usar el lenguaje visual y los garabatos en su trabajo y por supuesto encuentro mucha resistencia porque se consideran como algo antiintelectual y contrario al aprendizaje serio.